Saturday 10 March 2012

एक पूरी सांस

हमने हमारे दरमियां
एक दायरा सा बना रखा है
कसक का, खलिश का
इस दायरे के बीच 
न हवा का गुजर है
न रोशनी का दखल
अगर कुछ है तो बस 
एक स्याह जाल है तन्हाई का
कि जिसमें हम तुम
बहुत करीब होकर भी
बहुत दूर हैं एक दूसरे से

मेरी मासूम सी ख्वाहिशें
मेरे ख्वाबों के बगीचे
और नर्म-नाज़ुक सी
मेरी सुबहें, मेरी शामें
ऐसे चुरा ली है तुमने
जैसे गुलशन से
एक फूल चुरा लेता है कोई

ये फ़िज़ायें, ये हवाएं
ये रौनक, ये बहारां
और ये महफ़िल -ए-मुनव्वरां
सबकुछ है यहां मगर
हमारी एक खलिश ने
बिखरा दिया है इनका वजूद

अब आओ
के इस दायरे को तोड़ दें हम
स्याह जाल को काट दें हम
मैं तेरे सारे दर्द पी जाऊं
और तुम मेरे सारे ग़म को जी जाओ

अब आओ के
अधूरी सांस लिए हम 
ज़िंदा रह तो सकते हैं
मगर जी नहीं सकते सच्ची
अब आओ के
सारे दायरे तोड़ दें हम
तो हमें एक पूरी सांस मिले सच्ची...

- ग़ज़ाला हाशमी